Some Poems of Big poet
आ कि 2 आश्ना 3 तुझ से 4 तू ने
5 हम पे 6 आजिज़ी 7 जब कहीं 8 जब कभी
आ कि वाबस्ता
हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिस ने इस दिल
को परी-ख़ाना बना रक्खा था !
जिस की उल्फ़त
में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने
दहर को दहर का
अफ़्साना बना रक्खा था !!
2 आश्ना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उस की मदहोश
जवानी ने इनायत की है !
कारवाँ गुज़रे
हैं जिन से उसी रानाई के
जिस की इन
आँखों ने बे-सूद इबादत की है !!
3 तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में
उस के मल्बूस
की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे बरसा है
उसी बाम से महताब का नूर
जिस में बीती
हुई रातों की कसक बाक़ी है
4 तू ने देखी है वो पेशानी वो रुख़्सार वो होंट
ज़िंदगी जिन के
तसव्वुर में लुटा दी हम ने
तुझ पे उट्ठी
हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझ को मालूम
है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने
5 हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़म-ए-उल्फ़त के
इतने एहसान कि
गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हम ने इस इश्क़
में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और
को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
6 आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान
के दुख-दर्द के मअ'नी सीखे
ज़ेर-दस्तों के
मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के
रुख़-ए-ज़र्द के मअ'नी सीखे
7 जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिन के
अश्क आँखों में
बिलकते हुए सो जाते हैं
ना-तवानों के
निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तोले हुए
मंडलाते हुए आते हैं
8 जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाह-राहों पे
ग़रीबों का लहू बहता है
आग सी सीने में
रह रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर
मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है
जौन एलिआ
उठा कर क्यूं
न फेकें सारी चीज़े ।
फ़क़त कमरों
में टहला क्यूं करें हम ।।
नहीं दुनियां
को जब परवाह हमारी ।
तो फिर दुनियां
की परवाह क्यूं करें हम।।
बरेहना है सरे बाज़ार
तो क्या ।
भला अंधों से
परदा क्यूं करें हम।।
हैं बाशिंदे
इसी बस्तीके हम भी।
सो ख़ुदपर भी
भरोसा क्यूं करें हम।
जिक्रिया आज़ाद
१ एक मुद्दत की
रियाज़त से कमाए हुए लोग ।
कैसे बिछरे हैं
मेरे दिल में समाए हुए लोग।
२ तल्ख़गोई से
हमारे तू परेशान न हो।
हम हैं दुनियां
के मसाइब के सताए हुए लोग।
३ इस ज़माने
में मेरे यार कहां मिलते हैं ।
अपने दामन में
मुहब्बत को बसाए हुए लोग।
४ तुझको ऐ शक्स
कभी जि़स्त की तनहाई में ।
याद आएंगे उजलत
में गवाए हुए लोग।
५ उनके रस्ते
में बिछा देते हैं पलकें अपनी।
जब भी मिलते
हैं तेरे शहर से आते हुए लोग।
६ ये ग़नीमत है
जो आज़ाद नज़र आते हैं।
ख़ाब पलकों के
दरीचों में सजाए हुए लोग ।
७ एक मुद्दत की
रियाज़त से कमाए हुए लाग।
कैसे बिछरे हैं
मेरे दिल में समाए हुए लोग।
४ तुझको ऐ शक्स |
५ उनके रस्ते में |
६ ये ग़नीमत है |
७ एक मुद्दत की |
३ इस ज़माने में |
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२ तल्ख़गोई |
१ एक मुद्दत की |
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Qateel
Shifai: परेशाँ रात
सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
परेशाँ रात
सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
सुकूत-ए-मर्ग
तारी है सितारो तुम तो सो जाओ
2 हँसो और हँसते हँसते डूबते जाओ ख़लाओं में
हमीं पे रात
भारी है सितारो तुम तो सो जाओ
3 हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत
हमारी है सितारो तुम तो सो जाओ
4 तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
ये बाज़ी हम ने
हारी है सितारो तुम तो सो जाओ
5 कहे जाते हो रो रो कर हमारा हाल दुनिया से
ये कैसी
राज़दारी है सितारो तुम तो सो जाओ
6 हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएँगे
अभी कुछ
बे-क़रारी है सितारो तुम तो सो जाओ
Faiz 02
221130W
१. मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे
महबूब न मांग।
और भी दुख हैं
ज़माने में मुहब्बत के सिबा।।
२. मैंने समझा था कि तू है तो दरक्षां है हयात।
तेरा ग़म है तो
ग़मे दहर का झगड़ा क्या है।
३. तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात।
तेरी आंखों के
सिबा दुनियां में रक्खा क्या है।।
४. तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूं हो जाए।
ये न था मैंने
फ़क़त चाहा था यूं हो जाए।।
५. अनगिनत सदियों के तारीक के बहीमाना तिलिस्म ।
रेशमों अतलसो
कमख़्वाब में बुनबाए हुए।
६. जांबजां बिकते हुए कूचा ओ बाज़ार में जिस्म ।
ख़ाक में लिपटे
हुए, ख़ून में नहलाए हुए।।
७. जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से ।
पीप बहती हुई
गलते हुए नासूरों से ।
८. लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे।
अब भी दिलकश है
तेरा हुस्न मगर क्या कीजे।
९. और भी दुख है ज़माने में मोहब्बत के सिबा।
राहतें और भी हैं बस्ल के
राहत के सिबा।।
१०. मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग।
और भी दुख है
ज़माने में मोहब्बत के सिबा।
राहतें और भी
बस्ल के राहत के सिबा ।
तू जो |
अनगिनत |
जांबजां |
जिस्म |
तेरी |
|
लौट |
|
मैंने |
मुझसे |
मुझसे |
और भी |
आंखों में रहा दिल मे उतर कर नही देखा
कस्ती के
मुसफिर ने समन्दर नहीं देखा ।
२
जिस दिन से चला
हूं मेरी मंजिल पे नजर है
आंखों ने कभी
मिल क पत्थर नही देखा ।।
३
ये फूल मुझे
कोइ बिरसत मे मिले हैं।
तूने मेरा
कांटों भरा बिस्तर नही देखा ।।
४
खत ऐस लिख है
कि नगिने से जरेन है;
ओ हाथ जिस्ने
कोइ जेवर नही देख ।
फिराक गोरखपूरी:
सितारों से
उलझता जा रहा हूं।
सबे फुरकत
बहुत घबरा रहा हूं।
2
यकीं ये है
हकीकत खुल रही है।
गुमा ये है कि
धोखे खा रहा हूं।
3
भरम तेरे सितम
का खुल चुका है।
मैं तुझसे आज
क्यों शरमा रहा हूं।।
4
जो उन मासूम
आखों ने दिए थे।
वो धोखे आज तक
मैं खा रहा हूं।।
5
तेरे पहलू में
क्यों होता है महसूस।
कि तुझसे दूर
होता जा रहा हूं।।
मैथिली शरण गुप्त:
नर हो, न निराश करो मन को।
कुछ काम करो, कुछ काम करो ।
जग में रहकर कुछ
नाम करो।।
2
यह जन्म हुआ
कुछ अर्थ अहो।
समझो जिससे यह व्यर्थ न हो।।
कुछ तो उपयुक्त
करो तन को।
नर हो न निराश करो मन
को।।
3
सम्हलो कि
सुयोग न जाए चला।
कब व्यर्थ हुआ
सदुपाय भला।।
समझो जग को न
निरा सपना।
पथ आप प्रशस्त
करो अपना।।
अखिलेश्वर है
अवलम्बन को ।
नर हो, न निराश करो मन को।।
4
निज गौरव का
नित ध्यान रहे।
हम भी कुछ हैं
यह ध्यान रहे।।
मरणोत्तर गुंजित
गान रहे।
सब जाए अभी पर
मान रहे।।
कुछ हो न तजो
निज साधन को।
नर हो न निराष करो मन
को।।
5
प्रभु ने
तुझको कर दान किए।
सब वांछित वस्तु
विधान किए।।
तुम प्राप्त करो
उनको ना अहो।
फिर है किसका यह
दोश अहो।।
समझो न अलभ्य
किसी धन को
नर हो न निराष करो मन
को।।
6
किस गौरव के
तुम योग्य नहीं।
कब कौन तुम्हें
सुख भोग्य नहीं।।
जन हो तुम भी
परमेष्वर के ।
सब है जिनके
अपने घर के।।
फिर दुर्लभ क्या
उसके जन को ।
नर हो न निराश करो मन
को।।
नर हो न निराष करो मन
को।
कुछ काम करो कुछ काम करो
।।
जग में रहकर
कुछ नाम करो।।
कबीर दास
गुरू गोविंद दोनो खड़े का के लागूं पाय
बलिहारी गुरू
आपने गोविंद दियो बताय
2
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय
औरन को शीतल
करे आपहुं शीतल होय
3
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया
नहीं फल लागे अति दूर।
4
निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय
विन पानी
साबुन बिना निर्मल करे सुहाय
5
दुख में
सुमिरन सब करे सुख में करे न कोई
जो सुख में
सुमिनरन करे तो दुख काहे होय
6
माटी कहे
कुम्हार से तू क्यो रौंदे मोहि
एक दिन ऐसा
आएगा मैं रोदूगी तोहि
7
मेरा मुझमें
कुछ नहीं जो कुछ है सो तोहि
तेरा तुझको
सौंप के क्या लागे है मोहि
8
काल करे से आज
कर आज करे सो अब
पल में परलय
होएगी बहुरि करेगा कब
9
जाति न पूछो
साधु की पूछ लिजिए ज्ञान
मोल करो तलवार
का परी रहन दो म्यान
10
नहाय धोए क्या
हुआ जो मन मैल न जाय
मीन सदा जल
में रहे धोये बास न जाय
11
पोथी पढ़ पढ़ जग
मुआ पडित भया न कोई
ढाई आखर प्रेम
का पढ़े सो पंडित होय
12
साईं इतना
दीजिए जामें कुटुम समाय
मैं भी भूख ना
रहूं साधु न भूखा जाय
13
माछी गुड़ मे
गरी रहे पंख रहे लिपटाय
हाथ मले और
सिर धुने लालच बुरी बलाय
मीर तकी मीर
इफ्तिदा-ए-इश्क है
रोता है क्या?
आगे आगे
देखिये होता है क्या ।
2
निंद अब तेरे मुकद्दर में नहीं
रात के पिछले
पहर सोता है क्या?
3
ये निशने इश्क
है जाते नहीं
दाग छाती के
अक्स धोता है क्या?
4
गिर के उठना उठ के चलना सीख ले
बागे मन्जिल
इस तरह खोता है क्या?
मीर तकी मीर
इफ्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या?
आगे आगे देखिये होता है क्या ।
2
निंद अब तेरे मुकद्दर में नहीं
रात के पिछले पहर सोता है क्या?
3
ये निशने इश्क है जाते नहीं
दाग छाती के अक्स धोता है क्या?
4
गिर के उठना उठ के चलना सीख ले
बागे मन्जिल इस तरह खोता है क्या?
मधुशाला
एक बरस में एक
बार ही जलती होली की ज्वाला।
एक बार ही
लगती बाजी जलती दीपों की माला ।
दुनियां वालों
किंतु किसी दिन आ मदिरालय में देखो।
दिन को होली
रात दिवाली रोज मनाती मधुशाला।।
2
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला ।
किस पथ से
जाउं असमंजस में है वह भोला भाला।
अलग अलग पथ
बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूं।
राह पकड़ तू एक
चला चल पा जाएगा मधुशाला ।
3
यम आएगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला।
पी ना होश में
फिर आएगा सुरा विसुध यह मतवाला।
यह अंतिम
बेहोसी अंतिम साकी अंतिम प्याला है।
पथिक प्यार से
पीना इसको फिर ना मिलेगी मधुशाला । ।
4
मेरे अधरों पर
हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला।
मेरी जिह्वा
पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला।
मेरे शव के
पीछे चलने वालों याद इसे रखना ।
राम नाम है
सत्य न कहना कहना सच्ची मधुशाला ।
मेरे शव पर वह
रोये हो जिसके आंसू में हाला।
5
आह भरे वह जो
हो सुरभित मदिरा पीकर मतवाला।
दे मुझको वो
कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों ।
और जलूं उस
ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला ।
हरिवंश राय बच्चन:
जो वीत गयी सो
बात गयी,
जो वीत गयी सो
बात गयी।
2
जीवन में एक
सितारा था
माना वह बेहद
प्यारा था
वह डूब गया तो
डूब गया
अम्बर के आनन
को देखो
3
कितने इसके
तारे टूटे
कितने इसके
प्यारे छूटे
जो छूट गये
फिर कहां मिले
पर बोलो टूटे
तारों पर
कब अम्बर नीर
बहाता है
जो वीत गयी सो
बात गयी
जो वीत गयी सो
बात गयी
4
जीवन में वह
था एक कुसुम
थे उस पर नित्य
निछावर तुम
वह सूख गया तो
सूख गया
मधुवन की छाती
को देखो
5
सूखी कितनी
इसकी कलियां
मुरझाई कितनी
बल्लरियां
जो मुरझाई फिर
कहां खिली
पर बोलो सूखे
फूलों पर
कब मधुवन शोर
मचाता है
जो वीत गयी सो
बात गयी
जो वीत गयी सो
बात गयी
6
जीवन में मधु
का प्याला था
तुमने तन मन
दे डाला था
वह टूट गया तो
टूट गया
मदिरालय का
आंगन देखो
7
कितने प्याले
हिल जाते हैं
गिर मिट्टी
में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं
कब उठते हैं
पर बोलो टूटे
प्यालों पर
कब मदिरालय
पचताता है
जो वीत गयी सो
बात गयी
जो वीत गयी सो
बात गयी
8
मृदु मिट्टी
के हैं बने हुए
मधुघट फूटा ही
करते हैं
लधु जीवन लेकर
आये हैं
प्याले टूटा
ही करते हैं
9
फिर भी
मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं
मधु प्याले हैं
जो मादकता के
मारे हैं
वे मधु लूटा
ही करते हैं
10
वह कच्चा पीने
वाला है
जिसकी ममता धट
प्यालों पर
जो सच्चे मधु
से जला हुआ
कब रोता है
चिल्लाता है
जो वीत गयी सो
बात गयी
जो वीत गयी सो
बात गयी
फैज अहमद फैज
चंद रोज और
मेरी जान फकत चंद ही रोज।
जुल्म की छांव
में दम लेने पे मजबूर हैं हम।
और कुछ देर
सितम सह लें तड़प लें रो लें ।
अपने अजदाद के
मीराज हैं माजूर हैं हम।
2
जिस्म पर कैद
है जज्बात पर जंजीरें हैं।
फिक्र महकूज
है गुफ्तार पर तारीखें हैं।
अपनी हिम्मत
है कि हम फिर भी जिए जाते हैं।
3
जिंदगी क्या
किसी मुफलिस की कबा है जिसमें।
हर घरी दर्द
के पैवंद लगे जाते हैं।
लेकिन अब जुल्म के मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक जंरा सब्र
के फरियाद के दिन थोड़े हैं
4
अरसा ए दहर की झुलसी हुयी बीरानी में
हमको रहना है
यूंहीं तो नहीं रहना है।
अजनबी हाथों
का बेनाम गरावाज सितम
आयी सहना है
हमेषा तो नहीं सहना है
5
ये तेरे हुस्न
से लिपटी हुयी आलाम की गर्त
अपनी दो रोजा़
जवानी की षिकस्तों का सुमार
चांदनी रातों
का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद
तड़प जिस्म की मायूस पुकार
चंद राज़ और
मेरी जां फकत चंद ही रोज
जय शंकर प्रसाद हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
हिमाद्रि तुंग
श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा
समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
2
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य
पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो
3
असंख्य कीर्ति रश्मियां विकीर्ण दिव्य दाह सी
सपूत
मात्रृभूमि के रुको न शूर साहसी
4
अराति सैन्य सिंधु में सुबाड़ वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी
बनो बढ़े चलो बढ़े चलो
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ :
मुझसे पहली सी
मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।
और भी दुख है
जमाने में मुहब्बत के सिवा।
राहतें और भी
हैं वस्ल के राहत के सिवा।
2
मैंने समझा था कि तू है तो दरक्षां है हयात।
तेरा गम है
तेा गमे दहर का झगड़ा क्या है।
3
तेरी सूरत से
है आलम में बहारों को सवात।
तेरी आंखेां
के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है।
4
तू जो मिल जाए तो तकदीर निगूं हेा जाए।
यूं न था
मैंने फकत चाहा था यूं हेा जाए।
5
अनगिनत सदियों
के तारीख बहीमाना तलिस्म।
रेशमो अतलसो
कमखाव में बुनबाये हुये।
6
जांबजा बिकते
हुए कूचे ओ बाजार में जिस्म
खाक में लिथरे
हुए खून में नहलाए हुए।
7
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे।
अब भी दिलकस
है तेर हुस्न मगर क्या कीजे।
8
और भी दुख है जमाने में मुहब्बत के सिवा।
राहतें और भी
है वस्ल के राहत के सिवा।
सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला वर दे वीणा वादिनी
वर दे
वर दे वर दे
वर दे वीणा वादिनी वर दे
प्रिय
स्वतंत्र रब, अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे
वर दे वर दे वर
दे वीणा वादिनी वर दे
2
काट अंध उर के
बंधन स्तर
बहा जननि
ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर
प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
वर दे वीणा
वादिनी वर दे
3
नवगति नवलय
ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद
मंद्र रव
नव नभ के नव
विहग वृंद को
नव पर नव स्वर
दे।
वर दे वीणा
वादिनी वर दे
हिरास
साहिर
लुधियानवी
तेरे ओठों पर तवस्सुम की वो हलकी सी लकीर ।
मेरे तखईल से
रह रह के झलक उठती है।।
2
यू अचानक तेरे आरिज़ का ख़याल आता है ।
जेसे जुल्मत
में कोई शम्मा भड़क उठती है।।
3
तेरे पैराहने रंगी की जूनूख़ेज़ महक ।
ख़ाब बन बन कर
मेरे जेहन में लहराती है।।
4
रात की शर्द खामोशी में हरेक झोकों से ।
तेरे अल्फा़ज
तेरे जिस्म की आंच आती है।।
5
मैं सुलगते हुए राज़ों को अयां तो कर दूं।
लेकिन इन
राजों के तशहील से जी डरता है।।
6
रात के ख़ाब उजाले में बयां तो कर दूं।
इन हंसी
ख़ाबों के ताबीर से जी डरता है।।
7
तेरी सासों की थकन तेरी निगाहों का सूकून ।
दर हक़ीक़त
कोई रंगीन सरारत ही न हो।।
8
मैं जिसे प्यार का अंदाज समझ बैठा हूं।
वो तवस्सुम
वो तकल्लुम तेरी आदत ही न हो।।
9
सोचता हूं कि तूझे मिलके मैं जिस सोच में हूं।
पहले उस सोच
का मकसूम समझ लूं तो कहूं ।।
10
मैं तेरे शहर में अंजान हूं परदेशी हूं।
तेरे अलताफ का
मनहूम समझ लूं तो कहूं।।
11
कहीं ऐसा न हो पावों मेरे थर्रा जाएं।
और तेरी मरमरी
बाहों का सहारा न मिले।।
12
अश्क बहते रहें ख़ामोश सियाह रातों में।
और तेरी रेशमी आंचल का किनारा न मिले।।
Sahir 03
ख़ून फिर ख़ून
है
ज़ुल्म फिर
ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है।
ख़ून फिर ख़ून
है टपकेगा तो जम जाएगा।।
२
ख़ाके सेहरा
पे जमे या कफ़े क़ातिल पे जमे।
फ़र्के़
इंसाफ़ पे पाए सलासिल पे जमे।।
३
तेगे बेदाग़
पे या लाश ए बिस्मिल पे जमे।
ख़ून फिर ख़ून
है टपकेगा तो जम जाएगा।।
४
लाख बैठे कोई
छुप छुप के कमीगाहों में।
ख़ून ख़ुद
देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग़।
५
साजि़सें लाख
उड़ाती रहे जु़ल्मत के निकाब।
लेके हर बुंद
निकलती है हथैली पे चिराग़ ।।
६
ज़ुल्म की
किस्मते नाकारा ओ रुसबा से कहो।
जब्र की
हिकमते पुरकार की ईमा से कहो।।
मेहमिले मज़
लिसे अकवाम की लैला से कहो।
७
ख़ून दीवाना
है, दामन पे लपक सकता है।।
चोला ए तुंद
है खिरमन पे लपक सकता है।
८
तुमने जिस
ख़ून को मकतल में दबाना चाहा ।
आज ओ कूचा ओ
बाजार में आ पहुंचा है।
९
कहीं शोला
कहीं नारा कहीं पथ्थर बनकर ।
खून चलता है
तो रुकता नहीं संगीनो से
सर उठाता है
तो दबता नहीं आइनों से।
१०
जु़ल्म की
बात ही क्या ज़ुल्म की औक़ात ही क्या ।
जु़ल्म बस
जु़ल्म है आग़ाज से अंजाम तलक।
११
ख़ून फिर ख़ून
है सौ शक्ल बदल सकता है।
ऐसी शक्लें
जो मिटाओ तो मिटाए न बने।
१२
ऐसे शोले कि
बुझाओ तो बुझाए न बने।
ऐसे नारे जो दबाओ तो दबाए न दबे।
लाख बैठे कोई |
साजि़सें लाख उड़ाती रहे |
ज़ुल्म की किस्मते नाकारा |
ख़ून दीवाना है, |
तेगे बेदाग़ पे या |
ख़ून फिर ख़ून है |
ऐसे शोले कि |
तुमने जिस ख़ून को |
ख़ाके सेहरा पे जमे |
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है |
जु़ल्म की बात ही क्या |
कहीं शोला कहीं नारा |
फिराक गोरखपूरी
सितारों से
उलझता जा रहा हूं।
सबे फुरकत
बहुत घबरा रहा हूं।
२ यकीं ये है
हकीकत खुल रही है।
गुमा ये है कि
धोखे खा रहा हूं।
३ भरम तेरे
सितम का खुल चुका है।
मैं तुझसे आज
क्यों शरमा रहा हूं।।
४ जो उन मासूम
आखों ने दिए थे।
वो धोखे आज तक
मैं खा रहा हूं।।
५ तेरे पहलू
में क्यों होता है महसूस।
कि तुझसे दूर
होता जा रहा हूं।।
सुकुने दिल के
लिये कुछ तो एह्तमाम करूं
जरा नज़र तो
मिले फिर उन्हे सलम करूं
मुझे तो होश
नहीं आप मस्बिरा कीजे
कहां से छेरूं
फसना कहा तमम करूं
22222222222222222222
२. कस्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
हम डूबने
वालों का जज्बा भी नहीं बदला
है शौके सफर
ऐसा एक उम्र हुइ हमने
मन्जिल भी
नहीं पायी रस्ता भी नहीं बदला
333333333333333
आंखों में रहा दिल मे उतर कर नही देखा
कस्ती के
मुसफिर ने समन्दर नहीं देखा ।
जिस दिन से
चला हूं मेरी मन्जिल पे नजर है
आन्खो ने कभी
मिल क पत्थर नही देख ।
ये फूल मुझे
कोइ बिरसत में मिले हैं।
तूने मेर
कांटों भरा बिस्तर नही देखा ।
खत ऐस लिख है
कि नगिने से जरें है;
ओ हाथ जिस्ने
कोइ जेवर नही देखा ।
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मुहब्बत कर्ने वले कम न होंगे
तेरी मेह्फिल
मे लेकिन हम न होंगे
२ जमाने भर के
गम या एक तेर गम्
ये गम् होगा
तो कित्ने गम् न होंगे
दिलों के
उल्झने बढ़ती रहेगी
अगर कुछ
मश्वरे वा गम न होंगे
अगर तू
इत्तेफाकन मिल भी जाये
तेरी फुर्कत
के सदमें कम न होंगे
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हस्रत जैपुरि
जिगर मेन दर्द
लाया हूं
नज़र में
प्यार लाया हूं
मुहब्बत के
हंसी दामन का
मैं भी एक
साया हूं
न जाने क्या
कशिश है
आपकी
बंदानवाज़ी में
की मैं
दीवाना होकर
आपकी
मेह्फिल में आया हूं ।
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निदा फाजिलि
सफर में
धूप तो होगी जो कल सको तो चलो
२ सभी हैं
भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो ।
बने बनये हैं
खांके जो ढ़ल सको तो चलो ।
३. किसी के
बस्ते राहें कहां बदलती हैं
तुम अपने आप
को खुद ही बदल सको तो चलो ।
४. यहां किसी
को कोइ रास्त नहीं देता
मुझे गिरा कर
यदि तुम सम्हल सको तो चलो ।
५ यही है
जिन्दगी कुछ ख्वाब चंद उम्मिदें
इन्ही खिलोनो
से तुम भी बहल सको तो चलो ।
६ हरेक सफर को
है मेह्फुज रास्तों की तलाश्
हिफयतोन कि रिबयत बदल सको तो चलो ।
७ कहीं नहीं
कोई सूरज धुआं धुआं है फिज़ा
खुद अपने आप
से बहर निकल सको तो चलो ।
सहजाद अहमद
रुखसत हुआ तो
आंख मिला कर नहीं गया।
वो क्यों गया
ये भी बता कर नहीं गया।
२ वो यूं गया
कि वादे सबा याद आ गयी।
एहसास तक भी
हमको दिला कर नहीं गया।
३ यूं लग रहा
है जैसे अभी लौट आएगा।
जाते हुए चराग़
बुझा कर नहीं गया।
४ बस एक लकीर
खीच गया दरम्यान में।
दीवार रस्ते
में बना कर नहीं गया।
५ शायद वो मिल
ही जाए मगर जुस्तजू है सब।
वो अपने नक्से
पातो मिटा कर नहीं गया।
६ घर में है
आज तक वही खुषबू बसी हुयी।
लगता है यूं
के जैसे वो आकर नहीं गया।
७ तबतक तो फूल
जैसी ही ताज़ा थी उसकी याद।
जबतक वो
पत्तियों को जुदा कर नहीं गया।
८ रहने दिया न
उसने किसी काम का मुझे ।
और खाक में भी
मुझको मिला कर नहीं गया।
९ सहजाद यह
गिला ही रहा उसकी जात से।
जाते हुए वो
कोई गिला कर नहीं गया।
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